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राजस्थान -बहुत महंगा होगा विधानसभा का चुनाव

डेमो फ़ोटो



श्रीगंगानगर।[गोविंद गोयल] इतिहास के बारे मेँ अधिक नहीं जानता। लेकिन दो वाक्यों को लागातार सुना और पढ़ा है।


 एक-इतिहास खुद को दोहराता है और दूसरा-इतिहास से हम यही सीखते हैं कि कुछ नहीं सीखते। 15 साल पहले संजय मूंदड़ा ने सुरेन्द्र सिंह राठौड़ के लिए पैसा खूब लगाया। बहाया। लुटाया। 

दस साल पहले जयदीप बिहाणी ने भी खूब खर्चा किया। पांच साल पहले बी डी अग्रवाल ने जो किया वह तो इतिहास है। माया ने ऐसी माया रची की सब के सब उसी के भ्रम मेँ अपना स्वाभिमान तक भूल गए। 

कितनों ने अपने कद को बिसरा दिया। व्यक्तिगत रेपुटेशन तक माया मेँ खो गई। ‘कीमत’ पूछी गई और चुकाई गई। बिचोलिये भी खूब मौज मेँ रहे। तब ये कहा जाता था कि लोग लस्सी, दूध देते हैं, सेठ भैंस ही दे रहा है। चुनाव से पहले ही पैसा यूं बहने लगा  जैसे राजस्थान नहर मेँ पानी। 

एक नंबर मेँ चाहे जो खर्चा दिखाया या बताया गया, लेकिन असल मेँ कितना हुआ उसका ज्ञान केवल एक आदमी को ही होगा। इस बार फिर कुछ ऐसा ही होता दिखाई देने लगा है। हालांकि बी डी अग्रवाल जैसा दौर तो नहीं आने वाला, लेकिन फिर भी कुछ कुछ वैसा होने की संभावना लगती है। फर्क केवल इतना सा ही है कि इस बार बात सीधी है। कोई बीच वाला नहीं। बात करो और साथ आओ। 

और कुछ भी नहीं। 2008 और 2013 मेँ टिकट ना मिलने के बाद इस बार भी प्रहलाद टाक को टिकट मिलेगी,इसकी उम्मीद कम ही है। इस कारण उन्होने सुरक्षात्मक दृष्टि से बी डी अग्रवाल का रास्ता पकड़ लिया। थोड़ा अलग अंदाज मेँ। सरकारी योजनाओं के लिये शिविर। गांव-गांव मेँ जाना। जन जन को बताना। फिर शहर मेँ सफाई अभियान। बस अड्डे से शुरू होकर यह सफाई अभियान सार्वजनिक पेशाब घरों तक पहुँच गया। एक दिन नहीं,लगातार हो रहा है यह काम। 

गांधी जी ने सफाई के लिये जनता को प्रेरित किया था। 2014 मेँ मोदी जी ने भी ऐसा ही किया। मोदी जी के दो साल बाद प्रहलाद टाक तक खुद निकल पड़े सफाई करने। यह सब फ्री मेँ नहीं होता। बात बात पे दाम लगते हैं। हालांकि काम बहुत वजनदार है। किन्तु ये काम वे सारी उम्र तो नहीं कर सकते! इसके बाद हर आयोजन मेँ जाना। कहीं अध्यक्षता तो कहीं मुख्य अतिथि। कोई ऐसे ही नहीं बनाता ये सब। आर्थिक सहयोग करना पड़ता है। पैसे वाला चुनाव मैदान मेँ हो तो फिर संस्थाओं की उम्मीद बहुत अधिक बढ़ जाती है। 

अपने स्टेटस के हिसाब से बहुत कुछ देना पड़ता है। ख्वाब जब विधायक बनने का  हो और जेब की क्षमता भी हो, तब फिर ये बात कोई महत्व नहीं रखती कि किसको कितना देना है। घर घर पहचान तो हुई। नाम तो पहुंचा। गंगानगर की जनता अहसान को भूलती नहीं है। लेकर बिसारती भी नहीं। जनता लेकर भूलने वाली होती तो कामिनी जिंदल विधायक नहीं बन सकती थी। जनता तो बस चुनाव मेँ वोट देकर भूल जाती है। फिर उसे याद नहीं रहता कि जनप्रतिनिधि से क्या काम लेना है! उसे कब क्या कहना है! पांच साल बाद फिर गंगा घर घर आने को है। जो डुबकी लगाएगा उसका भला ही भला है। जो लगवाएगा,उसका कितना भला होगा, समय बताएगा।

 चुनाव आयोग ने खर्च की लिमिट बेशक बांध रखी है, परंतु भावी उम्मीदवारों ने नहीं। शहर की परवाह ना पहले कभी थी और ना अब होने की संभावना है। जब पैसा प्रधान हो ही गया  तो फिर क्यों पीछे हटा जाए। माया की माया से जब विधायक बना जा सकता है तो हर्ज ही क्या है, से खर्च करने मेँ। हां, इस वजह से उन भावी उम्मीदवारों के लिये जरूर संकट हो सकता है,जिनकी जेब की क्षमता अधिक नहीं है। चाहे जो हो, इस बार के चुनाव महंगे होते साफ दिखाई दे रहे हैं। 

दो लाइन पढ़ो-

ये दुनिया भी कमाल करती है



हँसता हूँ तो  सवाल करती है। 

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