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श्रीगंगानगर : जाने वाला गया, अब आने वालों का इंतजार


श्रीगंगानगर।[गोविंद गोयल] किसी के घर एक शोक बैठक मेँ शोक ग्रस्त परिवार के एक मेम्बर ने मुझसे  कहा, जाने वाला तो चला गया,अब तो आने वालों की बाट रहती है। हर आहट पर नजर गेट  पर जाती  है कि  कौन आया और अंदर ये चलता रहता है कि अभी कौन कौन नहीं आया! ये शब्द आज किसी  की वेदना या शोक की स्थिति मेँ निकले हुए शब्द  नहीं है, बल्कि हकीकत है। 


हकीकत भी ऐसी जिससे ना जाने कितने लोग प्रतिदिन रूबरू होते हैं। शोक बैठकें अब मात्र दिखावा, परंपरा का निर्वहन और इधर उधर की चर्चा का  विषय बन चुकी है। हालांकि चर्चा तो पहले भी होती रही होंगी, क्योंकि इसी कारण तो शोक संतप्त परिवार के मेंबरों का ध्यान दुख से हटाया जाता है। ताकि वे ठीक रहें। नॉर्मल हो जाएं। परंतु अब तो मात्र दिखावा हो चुकी हैं ये बैठकें। जिसके घर से कोई सदा के लिए गया, उसकी दिनचर्या मेँ भी कोई अधिक अंतर नहीं पड़ता। पति-पत्नी मेँ से कोई एक चला जाए तब मात्र उसी की ज़िंदगी प्रभावित होती है, जो पीछे रह जाता है।


 इससे अधिक कुछ नहीं। इस दौर मेँ मृत्यु होते ही फेसबुक और व्हाट्सएप के स्टेटस अपडेट होते हैं। तुरंत सूचना का प्रभावी माध्यम भी यही है अब। उसके बाद यह काम लगातार रस्म पगड़ी तक जारी रहता है। अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू करने से लेकर रस्म पगड़ी की अंतिम रस्म तक परिवार वालों की निगाह आने जाने वालों पर लगी रहती है। भीड़ मेँ एक एक पर नजर जाती है। कौन आ गया, कौन नहीं आया। घर से लेकर कल्याण भूमि तक नजर इधर उधर दौड़ती है। श्मशान मेँ प्रवेश करते ही निगाह उन पर जाती है, जो वहां पहले से पहुंचे होते हैं। अंतिम संस्कार मेँ शामिल व्यक्ति भी यही चाहते हैं कि उस व्यक्ति की निगाह उस पर पड़ जाए  जिसे सूरत दिखाने आए हैं, उसके बाद बेशक रुकें ना रुकें, कोई अंतर नहीं पड़ता। हाजिरी लग गई, बस! 


ये सिलसिला उस वक्त तक जारी रहता है, जब तक अंतिम संस्कार हो नहीं जाता। फिर शोक संतप्त परिवार के मेम्बर लाइन से खड़े हो जाते हैं। सब के सब उनके आगे से गुजरते हैं। ऐसे जैसे अपनी हाजिरी लगवानी होती है। पता नहीं किसने ये रिवाज बनाया। कभी एक ने किया होगा किसी कारण से । दूसरे ने देखा। तीसरे ने अपना लिया। फिर सब ऐसे ही करने लगे। कोई ना भी करना चाहे तो दूसरे करवा देते हैं। जिनके शोक है वे तो बोलते ही नहीं कुछ। बोल ही नहीं पाते। या तो आने वालों को देखने मेँ लगे रहते हैं या आने वाले उनके सामने आ अपनी हाजिरी लगवा रहे होते हैं। उनके पास हाथ जोड़ के खड़े रहने के अतिरिक्त और कोई काम होता ही नहीं । जिसने जो कहा, कर दिया। घर मेँ होने वाली बैठकों मेँ भी यही होता है।


 सुबह से रात तक इंतजार। अपनों का इंतजार। उनका इंतजार जो हर किसी के जाते हैं। या जिनको हर किसी के जाना होता है। जो हर सुबह सबसे पहले यही देखते हैं कि उनके क्षेत्र मेँ आज कौन मरा। किसके रस्म पगड़ी है। किसका दहाका है। कोई माने या ना माने ये हकीकत है। शोक संतप्त परिवार के मेम्बर मेँ ये चर्चा भी होती है कि वो नहीं आया! हम तो उनके यहाँ जाते हैं। जब किसी खास या अपने के ना आने का दुख अधिक सताने लगता है तो फिर ये कहा जाता है, छोड़ो, वो कौनसा अमर हैं। 


उनके माँ-बाप कौनसे अमर है। मतलब उसके माँ-बाप प्रस्थान करेंगे तो हम भी नहीं जाएंगे। आज के दौर मेँ यही हकीकत है रिश्तों की। हमारी सामाजिकता की। आने का जाना है। सुख दुख मेँ आना जाना, अब बदला हो चुका है। इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि समाज मेँ किसकी क्या हैसियत है। अहमियत है। कोई किसी के दुख सुख मेँ आएगा, जाएगा तभी दूसरे व्यक्ति भी उसके यहां आएंगे। किसी के दुख मेँ सच मेँ दुखी होने वाले अब शायद ही मिले।  

दो लाइन पढ़ो-

ए ज़िंदगी!  तेरी क्या औकात है


बस इक सांस की ही तो बात है। 

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