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समझ : कार्य प्रणाली एंव बचपन- आईपीएस पंकज चौधरी


ADMINISRATOR
14 November 2017
(बाल दिवस विशेष )
"पुलिस विभाग में कार्य करते हुये कई सामाजिक जटिलताओं को समग्र तौर पर समक्षने का अवसर मिला । स्टेट क्राइम रिकार्ड ब्यूरो , जयपुर के पुलिस अधीक्षक के तौर पर कार्य प्रणाली को राज्य स्तर पर इसके आयाम को समक्षने की जिज्ञासा एंव रुचि हुयी ।

उदाहरण : चोरी करने वाले गिरोह की कार्य प्रणाली , मानसिकता , नेटवर्किंग । रेलवे स्टेशन , बस स्टैण्ड , एअरपोर्ट एंव सफ़र/यात्रा  के दौरान अपराध करने वाले गिरोह ।मानव तस्करी , बाल तस्करी , ड्रग ट्रेफ़िकिंग , काला धन , क्रेडिट कार्ड / डेबिट कार्ड / इन्टरनेट चीटिँग , सार्वजनिक स्थलों पर अन्य संगठित अपराध आदि -आदि ।

हाल में साइबर क्राइम के तहत सोशल मीडिया के विभिन्न आयाम फ़ेसबुक , ट्विटर , वहाटसअप एंव अन्य आदि के माध्यम से युवाओं को शिकार बनाना इन गिरोहों द्वारा बहुत आसान हो गया है ।मेटरोपोलिटन सिटी के साथ-साथ गावं भी आज इससे अछूते नहीं है । इस प्रकार के क्राइम में संगठित तरीके से व्यक्ति विशेष , समुह विशेष एंव संस्था विशेष को शिकार बनाया जाता है । इनका सिर्फ़ व सिर्फ़ एक मक़सद आर्थिक शोषण करना और वो किसी भी हद तक करना है ।


हनुमानगढ़ कार्यक्रम से पहले मुलाकात की झलकी

(0-18 )वर्ष की आयु सीमा के युवाओं की जनसंख्या भारत की जनसंख्या की लगभग 40 प्रतिशत है । इसमें 16,17,18 वर्ष की आयु नितांत परिवर्तनशील , सपनों की उड़ान को स्थायित्व देने को अग्रसर होती है । इस वर्ग की जैविक संरचना , सोच , उमंग को यदि सही मार्ग मिल जाये तो चमत्कार हो जाता है और यदि इनके इमोशन , ऊर्जा व शक्ति का दुरुपयोग होता है तो वह वीभत्स अंजाम देता है ।माता -पिता , अभिभावकों को बच्चों की प्रतिभा का सही आकलन करना आना चाहिए । बच्चा यदि शिक्षा , खेलकूद , संगीत , डाँस , चित्रकारी , पेंटिंग , समाजसेवा, राजनीति , मनोरंजन आदि किसी भी आयाम को बेहतर एंव प्रभावी कर सकता है तो उसे पर्याप्त मौक़ा दिया जाना चाहिए बजाय समाजिक दबाव के प्रभाव में गलत निर्णय लेना ।कार्य प्रणाली की शाखा का कार्य देखने के अंतर्गत बच्चों की मानसिकता , जिज्ञासा को निष्पक्ष तौर पर देखने का प्रयास किया । फ़िल्मों का क्रेज़ सभी को है ,बच्चे इससे अछूते नहीं हैं। बाल दिवस पर परिवार सहित बच्चों की मुवी “छुटकन की महाभारत ” देखी । मुवी न सिर्फ़ छोटें बल्कि बड़ों को भी गंभीर संदेश दे गयी । एेसी बाल फ़िल्में बहुतायत में क्यों नंही बन सकती है ? भारत में बनने वाली फ़िल्मों का एक प्रतिशत भी बच्चों को समर्पित नंही है ।ज़बकी ये 40 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते है । बच्चे विवशतावश बड़ों की फ़िल्में देखने को मजबूर है क्योंकि उनके आयु सीमा की फ़िल्में बनती ही नहीं है । “फ़िल्में समाज का आईना होती है ” एेसी मान्यता है पर मैं इस पर यक़ीन नहीं करता जब 40 प्रतिशत का वर्ग के लिए गिनी चुनी मुवी है या बनती हैं। तमाम फ़िल्मकार इस तबके के लिए फ़िल्म क्यों नहीं बनाते है ? क्या विवशता है ? आर्थिक विवशता समझी जा सकती है पर मानसिक विवशता तो नहीं ? बच्चों के लिए अच्छी फ़िल्में बनेगी तो इस वर्ग एंव समाज को दीर्घ कालिक लाभ मिलेगा । हम सभी का दायित्व है कि इस उम्र सीमा को अधिक गंभीरता , विजन , उत्साह से पुनर्गठित किया जाय ।


भारत युवाओं का देश है सारे विश्व को हम बताते हैं,हम भविष्य की ताक़त हैं। पर दूसरा पहलु यह भी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)की रिपोर्ट के अनुसार भारत के युवा डायबीटीज़ , रक्त चाप , अवसाद , हार्ट अटैक आदि तमाम बीमारियों से बहुतायत में पीड़ित है और यह समस्या एंव संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जायेगी । यदि युवा खोखला है तो नि: संदेह हम सभी नागरिकों , समाजसेवियों,शासन -प्रशासन के लिए चिंतनीय है । फ़िल्म निर्माण की संतुलित प्रकिया जितनी जल्द हो बेहतर रहेगा । संयुक्त परिवार की अवधारणा को पुनर्जीवित करने की सोच आज के संदर्भ में नितांत ज़रूरी है ।जयहिंद जयभारत जय सविंधान



लेखक पंकज चौधरी
2009 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के (राजस्थान कैडर )के अधिकारी है ।

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