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खुद को साबित नहीं करोगे तो पिछड़ जाओगे

                                    

श्रीगंगानगर।गोविंद गोयल] खुद को साबित करके ही  इंसान हर प्रकार की दौड़ मेँ बना रह सकता है। इसके लिए रिस्क भी लेना पड़ता है। कहते हैं तीन पत्ती मेँ ब्लाइंड चलने वाले अक्सर जीत जाते हैं। जिसने खुद को साबित करने की कोशिश नहीं की वे नाम बिसरा दिये जाते हैं। लोग उनको भूलने लगते हैं। एक दिन पूरी तरह भुला दिये जाते हैं। उनका स्थान कोई और ले लेता है, क्योंकि कोई स्थान शायद ही कभी खाली रहता हो। राजनीति मेँ तो ये बहुत होता है। जिसने तमाम अनुशासन तोड़ खुद के वजूद को साबित किया, वे पा गए और जो सोचते रहे, हिम्मत ना कर सके, वे केवल लाइन मेँ लगे रहे। आज भी ऐसे व्यक्ति  लाइन मेँ लगे दिखाई दे जाते हैं। एक दिन इसी लाइन मेँ उनकी राजनीति पूरी हो जाएगी। कांग्रेस के महेंद्र सिंह बराड़ 1980 मेँ संगरिया से विधायक बने। उसके बाद आज तक उनको टिकट नहीं मिला। 1993 मेँ उन्होने खुद की बजाए बड़े भाई को निर्दलीय मैदान मेँ उतारा। वे जीत गए। महेंद्र सिंह बराड़ बाहर। आज तक टिकट के लिए तरले मार रहे हैं। बीजेपी के कुन्दन लाल मिगलानी। 1990 मेँ श्रीकरनपुर से चुनाव जीते। मंत्री बने। उसके बाद कुछ नहीं। टिकट के आस पास भी नहीं पहुंचे। पहले हर चुनाव के आस पास टिकट के दावेदारों मेँ नाम भी आ जाता था, अब वो भी गायब हो गया। बीजेपी के अशोक नागपाल भी इसी स्थिति मेँ है। एक बार टिकट मिली। चुनाव जीत गए। फिर टिकट नहीं मिली। ओ पी महेन्द्रा भी इसी श्रेणी मेँ हैं। रायसिंहनगर से लालचंद मेघवाल भी टिकट का इंतजार कर रहे हैं। एक बार ही टिकट मिली थी लालचंद को भी। कांग्रेस के दौलत राज को भी मैदान मेँ एक बार ही उतारा गया। सुरेन्द्र सिंह राठौड़, संतोष सहारण भी एक एक बार टिकट ले पाए। सुरेन्द्र राठौड़ तो राजनीति से साइड मेँ हो गए, संतोष सहारण अभी है लाइन मेँ। ये नाम वो नांम हैं जिनको पार्टियों ने टिकट दी। टिकट मिलने के बाद सब पार्टी की पसंद पर खरे उतरे।


 जनता ने पार्टी की पसंद को अपनी पसंद बना विधानसभा मेँ भेजा। ये सब आज कहाँ हैं! आज की राजनीति मेँ कितने ही नाम पर्दे के पीछे चले गए। सालों बीत गए, टिकट की लाइन मेँ लगे हुए। नई जनरेशन आ गई। वे तो शायद जानते ही नहीं होंगे महेंद्र सिंह बराड़, कुन्दन लाल मिगलानी जैसे नामों को। अब तो कोई उम्मीद भी नहीं है इनके लिए। वक्त बहुत बीत गया। अगर तब इन सभी ने खुद को साबित किया होता तो शायद ये भी राजनीति की साइड लाइन मेँ होने की बजाए मुख्य धारा मेँ होते। इनका स्थान सुरक्षित रहता। पार्टी को इनकी आवश्यकता रहती। राजनीति मेँ खुद को साबित करने के लिए खुद चुनाव लड़ना पड़ता है। ब्लाइंड चलना होता है। हिम्मत दिखा रिस्क लेनी पड़ती है। ऐसे जैसे 2008 मेँ गुरमीत सिंह कुन्नर ने किया। टिकट कटने के बाद गुरमीत सिंह कुन्नर घर बैठ जाते तो आज उनके स्थान पर कोई और ही होता। एक बार पिछड़े तो बहुत मुश्किल हो जाती है बराबरी करने मेँ। अपना राजनीतिक वजूद साबित करने के लिए राधेश्याम गंगानगर ने तो कांग्रेस छोड़ पार्टी ही बदल ली थी। नहीं तो वे भी भुला दिये जाते। रिस्क ली तभी तो आज भी राजनीति मेँ बने हुए हैं, पूरी शान से। राजेन्द्र भादू ने निर्दलीय चुनाव लड़ा। दूसरे चुनाव मेँ बीजेपी की टिकट पर विधायक बने। जगदीश जांदू ने सभापति का चुनाव निर्दलीय लड़ अपना वजूद दिखाया। 2013 मेँ कांग्रेस की टिकट ले आए। राजनीति मेँ पार्टी अनुशासन, नीति, सिद्धान्त कोई मायने नहीं रखते। राजनीति मेँ जीत मायने रखती है। राजनीतिक व्यक्ति का कितना वजूद है, उसके मायने होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। जो जीत सकने लायक है, वही पार्टी की चुनावी राजनीति के काम का है। बाकी सब संगठन मेँ। क्योंकि जीत ही पार्टी को सत्ता दिलाती है, और कुछ भी नहीं। दो लाइन पढ़ो-


दो किनारों को मिलाने की कोशिश में हूँ
देखना किसी रोज टूट के बिखर जाऊंगा।

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