श्रीगंगानगर। गंगानगर पहला ऐसा शहर है, जिसके उन मसानों की चाबी पुलिस के पास है, जहां बच्चों के शवों को मिट्टी दी जाती है। दफनाया जाता है। जिस किसी परिवार मेँ बच्चे की मौत होती है। वो बॉडी लेकर आते हैं। खड़े रहते हैं....चाबी लाई जाती है....ताला खुलता है...फिर शव को मिट्टी दी जाती है। इस प्रक्रिया मेँ जो समय लगता है,वो तो लगता ही है, लेकिन दुखी परिवार के मेम्बर को जो पीड़ा होती है,उसको मापने का कोई पैमाना नहीं है। बच्चे की मृत्यु से एक तो परिवार वैसे ही दुखी, उस पर उसे शव दफनाने के लिए इंतजार करना पड़ता है,उसकी पीड़ा।
इससे अधिक किसी शहर की बेबसी और क्या हो सकती है कि उसके किसी निवासी को अपने बच्चे के शव को दफनाने के लिए भी इसलिए इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि मसानों की चाबी पुलिस के पास है। चाबी इसलिए पुलिस के पास है, क्योंकि पुलिस शव गायब होने के आरोप की जांच कर रही है। पुलिस की जांच कब खत्म होगी? जब जांच पूरी हो जाएगी! तब तक ऐसी ही चलेगा....ऐसा ही चल रहा है। पुलिस की सामान्य जांच मेँ भी समय लगता है, ये तो है भी विशेष जांच। मुरदों के गायब होने के आरोपों की जांच। अभी तो शुरू हुई है। पड़ताल होगी। कौन कौन से गड्ढे हैं, उनकी फिर से खुदाई होगी।
खुदाई कोई पुलिस अपनी मर्जी से कर नहीं सकती। इसके कानून है, नियम है। मजिस्ट्रेट से इजाजत मिलेगी। तब कहीं होगी उन गड्ढों की खुदाई,जिनके बारे मेँ कहा जाता है कि वहाँ से शव गायब हो गए। इस पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी होगी। ये कोई एक, दो दिन का काम नहीं है। लंबा समय लगेगा। फिर पुलिस को एक यही तो काम नहीं है, और भी ना जाने कितने काम है। पुलिस भी जानती है कि मुरदों के शहर मेँ मुरदों के गायब होने, ना होने मेँ कुछ व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी को रुचि नहीं है।
कोई अपने बच्चे की डैड बॉडी लेकर खड़ा है तो खड़ा है। किसी के दिल पर कोई असर नहीं। क्योंकि ऐसा नामुराद, बेदर्द दर्द संवेदनाओं की वजह से होता है। और सब जानते हैं कि मुरदों की संवेदनाएं होती ही नहीं। इसलिए किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई ताव नहीं खाने वाला। बेटे/बेटी का शव गोद मेँ लेकर किसी पिता को चाबी का इंतजार करना पड़ता है तो क्या हुआ! कोई मामा अपने भांजे के शव के साथ चाबी की राह देख रहा है तो देखे ना! किसी को शव दफनाना है।
वह कभी किसी को फोन करता है और कभी किसी पदाधिकारी को। करे तो करे। मौत उसके बच्चे की हुई है, किसी दूसरे को क्या! दो पक्ष है। एक वर्तमान प्रबंध समिति। और दूसरा पक्ष वह जो शव गायब होने के आरोप लगाते हुए वर्तमान प्रबंध समिति को भंग करने की मांग कर रहा है। परंतु इनमें किसी ने उन लोगों का दर्द महसूस नहीं किया जो चाबी के इंतजार मेँ अपने बच्चे का शव गोद मेँ लिए खड़े रहते हैं, या बुझे मन से बैठ जाते हैं। किसी पक्ष ने ऐसी व्यवस्था नहीं कि जांच के दौरान जीवन का सबसे जरूरी काम भी बिना किसी अतिरिक्त पीड़ा, दर्द के होता रहे।
एमपी, एलएलए सहित तमाम जन प्रतिनिधियों को तो इन सब बातों के लिए समय ही नहीं। क्योंकि वे तो किसी विवाद मेँ फंस अपने वोट बैंक को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। उनके तो सभी काम वोटों का गुणा भाग करके होते हैं। एक का पक्ष करें तो दूसरा नाराज हो जाएगा। इसलिए खामोशी ही बेहतर है। जब शहर के निर्वाचित नेताओं को किसी की पीड़ा का अहसास नहीं तो ब्यूरोक्रेसी को क्या पड़ी है! वह तो आज है और कल नहीं। उनकी बला से ताला खुला रहे या बंद, उनके कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। इस मुद्दे पर तो पक्का यकीन हो गया कि गंगानगर मुरदों का ही शहर है। वरना, कोई तो बोलता! कोई वैकल्पिक व्यवस्था तो करता।[govind goyal] दो लाइन पढ़ो-
ए ज़िंदगी तेरी क्या औकात है
बस इक सांस की ही तो बात है।
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