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ऐसे तो हो गयी मानवाधिकारों की रक्षा! भारत में क़ानूनी मदद के आंकड़े बेहद खराब


नई दिल्ली(जी.एन.एस) दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने कहा कि कानूनी मदद मुहैया कराने वाले वकील मानवाधिकार के रक्षक हैं और जरूरत है कि उन्हें भी लोक अभियोजकों के स्तर का भुगतान किया जाए। राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल (सीएचआरआई) की रिपोर्ट ‘सलाखों के पीछे उम्मीद?’ से पता चला है कि भारत में कानूनी मदद पर प्रति व्यक्ति खर्च महज 0.75 रुपए है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि राज्य विधिक सेवा प्राधिकारों को आवंटित धनराशि में 14 फीसदी राशि खर्च ही नहीं की जाती। बिहार, सिक्किम और उत्तराखंड जैसे राज्यों ने आवंटित धनराशि में 50 फीसदी में से भी कम खर्च किया जबकि 520 जिला विधिक सेवा प्राधिकारों (डीएलएसए) में से महज 339 में पूर्णकालिक सचिव हैं ताकि कानूनी मदद सेवाओं की आपूर्ति का प्रबंधन किया जा सके।
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एक बयान में मुरलीधर के हवाले से कहा गया, दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने आज कानूनी मदद मुहैया कराने वाले वकीलों को मानवाधिकार के रक्षक के तौर पर परिभाषित किया और ऐसे वकीलों को लोक अभियोजकों के स्तर का भुगतान किए जाने की जरूरत पर जोर दिया। कानूनी प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता सुधारने पर आयोजित एक परिचर्चा में न्यायमूर्ति मुरलीधर ने आपराधिक कानून एवं प्रक्रियाओं पर आधारित रुख की बजाय कानूनी मदद को लेकर मानवाधिकार आधारित रुख की जरूरत बताई।

दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह ने यह रिपोर्ट जारी की। बयान में न्यायमूर्ति शाह के हवाले से कहा कि कई कैदियों को अपने मुकदमों की मौजूदा स्थिति और अपने बुनियादी मानवाधिकारों के बारे में पता नहीं होता है। उन्होंने कहा, न्याय तक पहुंच सबसे बुनियादी मानवाधिकार है।
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