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आज मुल्क़ में इन्सानियत रो रही है


"आज "मुल्क़" में "इन्सानियत" "रो" रही है,
"ज़िन्दादिली" और "एकता" शायद कहीं "सो" रही है,

"प्यार" और "मुहब्बत" की बातें सिर्फ "किताबों" में ही रह गयीं,
"आज "हर मोड़" पर "निहायत बेशर्मी" हो रही है,

"इन्सान" की "संवेदनाएं" बन गयी हैं "तमाशा",
"इन्सानियत" की "भावनाएं" भी कहीं "खो" रही हैं,

"प्यासे" को "पानी" क्या "पिलायेगा" कोई,
"प्यास" तो "चौखट" पर ही "दम" तोड़ रही है,

"कोई नहीं करता "मदद" यहाँ "किसी" की,
"खुदगर्ज़ी" की "बारिश" ही हमें "भिगो" रही है,

"दिल" को हमने अपने "सामान" बना डाला है,
"बाज़ार" में बस इसकी ही "ख़रीदारी" हो रही है,

"दुःख" और "दर्द" अब हमारे अन्दर कहाँ, ?
"इन्सान" होने की "पहचान" शायद कहीं "खो" रही है,

"मंज़िलों" के "रास्ते" ख़ुद हमने ही "बंद" कर डाले,
"अब इनको "खोलने" में "परेशानी" क्यूँ हो रही है,?

"प्यार" और "मुहब्बत" की "डोर" ख़ुद ही "तोड़ते" जा रहे हैं हम,
"और फिर कहते हैं, ये "डोर" "कमजोर" क्यूँ हो रही है,

"यह सारे "सवाल" ख़ुद हमने ही "खड़े" किये हैं,
"तो अब "जबाब" देने में "परेशानी" क्यूँ हो रही है ?

"तो अब जबाब देने में परेशानी क्यूँ........????
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(लेखक - राशिद सैफ़ी "आप" मुरादाबाद)
संस्थापक/अध्यक्ष
*इन्सानियत वेलफेयर सोसाइटी

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