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लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ " भरभराकर ढहने की कगार पर


लेखक जसप्रीत सिंह (पत्रकार)
पत्रकारिता लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ है " लगता है इस देश में यह स्तम्भ स्वयं भरभराकर ढहने की कगार पर खड़ा है और साथ ही भारतीय लोकतन्त्र को भी ढहाने की कसम खा चुका है। पिछले कुछ वर्षों में विशेषकर बीते कुछ महीनों के परिदृश्य पर दृष्टि डालें जहाँ भारतीय मीडिया की अपरिपक्वता, जल्दबाज़ी, गैर जिम्मेदारना व्यवहार और बाज़ार अथवा राजनैतिक ताकतों की कठपुतली जैसा व्यवहार बिलकुल स्पष्ट दिखाई देता है।

 ऐसा क्यों हो रहा है यह विचार करने योग्य बातें है, एक पत्रकार होने के नाते मैंने भी इस बात पर विचार किया और अपनी समझ के अनुसार पाया की कुछ साल पहले मीडिया लाइन में राजनीतिक, कारपोरेट घरानों ने अपनी दस्तक दे दी थी जिस वजह से आज मीडिया का यह हश्र हो रहा है। सच दिखाना, सच छापना, सच का साथ देना आज लगता है एक जुर्म है, आज से पहले जब कोई पत्रकार सरकार, प्रशासन की नाकामी को लोगों के सामने लाते थे तो उन्हे कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता था लेकिन उन्हे एक होंसला भी होता था की जनता और उनके पत्रकार साथी उनके साथ है जो उन्होने किया अगर वो सही है तो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।

परंतु आज इसके बिलकुल विपरीत है अगर कोई सच का साथ देता है तो वह अकेला ही रह जाता है सरकार, प्रशासन और लोगों ने तो उसका साथ छोडना ही था उसकी जमात ने ही उसे बीच राह में भटकने के लिए छोड़ दिया है। ऐसा क्यों हुआ यह कहना गलत होगा की यह सरकार, प्रशासन और लोगों की नाकामी है नहीं यह पत्रकारों की नाकामी है, हर पत्रकार की सोच अलग है उसका खबर को देखने का नजरिया अलग है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए की परिवार मे अगर कोई गलती करता है तो उसे घर से बाहर नहीं निकाला जाता उसे समझाया जाता है की आपने यह गलती की है और आगे से इसमें सुधार कीजिये, परंतु यह बड़ी विडम्बना है की पत्रकारों के परिवार ने जैसे ठान लिया है की अगर कोई गलती करता है तो उसे समझाया नहीं जाएगा उसे घर से निकाल दिया जाएगा और इस भीड़तंत्र के हवाले कर दिया जाएगा फिर वह पत्रकार जाने और भीड़।

 यह सब किसलिए हो रहा है यह परिवार क्यों टूटता जा रहा है इस पर भी थोड़ा विचार किया तो पाया की कुछ तथाकथित पत्रकार जो अपने आप को सबसे बड़ा समझते है, और कहीं वो किसी बड़े संस्थान का बडा पत्रकार बना हुआ हो तो फिर सोने पे सुहागा ही होगा उसके लिए, क्यों की उसके जहन में आ जाता है की न्यायपालिका, कार्यपालिका, वयवस्थापिका भी अब उसी के इशारों पर चलेंगी क्यों की वह एक बड़ा पत्रकार है और चोथे स्तंब पर तो उसका पहले से ही अधिकार है। यहाँ एक साथी पत्रकार की कही एक बात याद आ गई की कोई भी पत्रकार बन जाता है तो वह अपने आप को सबसे ऊपर समझने लगता है यह उसकी गलती है वह सिर्फ एक मिडिएटर है जिसका काम सही गलत को लोगों के सामने रखना मात्र है।

लेकिन आज ऐसा नहीं हो रहा जिस तरीके से मीडिया क्षेत्र में चैनल और अखबारों की बाड़ आई हुई है उस कारण राह चलते किसी को भी पत्रकार की उपाधि दे दी गई है जिन लोगो को पत्रकार के शब्द लिखने नहीं आते उन्हे ब्यूरो चीफ जैसे पद पर सुसजित कर दिया गया है।

 मेरा विषय यह नहीं है मेरा विषय परिवार मे फूट का है जिसकी वजह है पद का मान और पैसों की शान, आज मैं सोश्ल मीडिया पर कुछ देख रहा था तो मेरे एक साथी पत्रकार ने अपने द्वारा लिखी खबर पर लिखा की उसकी यह खबर देख कर किसी बड़े घराने के बड़े पत्रकार ने उसे देख लेने की धमकी दी है, बड़ा दुख हुआ यह बात सुन कर की परिवार की थोड़ी सी खींचतान को भाई उस जमात के पास लेकर जाना चाहता है जो पहले से ही पत्रकारों को काबू मे करने की फिराक मे रहती है उसे ही आगे किया जा रहा है। मैं यहाँ अपने विचार रख रहा हूँ जैसा की मैं पहले ही कह चुका हूँ की  खबरों मे सबसे आगे बने रहने के चलते सत्य की खोज किए बिना ही खबरों और लोगों को महत्व दे देना चलन हो गया है जिसके चलते अक्सर गलतियाँ हो जाती है लेकिन अगर कोई अपनी गलती को स्वीकार करे तो वह छोटा नहीं हो जाएगा क्योंकि बड़े बुजुर्ग कहते है की गलतियों से ही इंसान सीखता है अगर आपकी गलती कोई आपको बताता है तो उसका धन्यवाद कीजिये क्योंकि अगर आपको आपकी गलती का पता नहीं चलेगा तो आप आवश्यक रूप से दूसरी गलती करोगे आपकी गलती बता कर आपको दूसरी गलती करने से रोकना जुर्म नहीं है। अपने पद और पैसे का दुरुपयोग मेरी नजर में तो गलत ही है।

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