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श्रीगंगानगर।[गोविंद गोयल] सभ्य, सुशील और संस्कारी परिवारों की पहचान संकट और मुश्किल के समय ही होती है। तब यह देखना होता है कि ऐसे परिवार कितना धैर्य रख विवेक से मसले का निपटारा करते हैं। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। दारुण शोक विवेक को हर लेता है। फिर वही होता है जो श्रीगंगानगर मेँ हुआ। बेटी-बहू का शव आँगन मेँ अंतिम संस्कार के इंतजार मेँ है और महिलाएं आपस मेँ मार पीट कर रहीं हैं।
जिसने जन्म दिया उस पक्ष की महिलाएं भी और जिसके घर से अर्थी निकलनी होती हैं वे भी। जिसके लिए इतना कुछ किया, उसकी मौत का सदमा ऐसा कि मर्यादा, गरिमा और संस्कार सब बिखर गए। टुकड़े टुकड़े हो गए। । अंदर महिलाएं लड़ रहीं थीं और बाहर पुरुष वाक युद्ध मेँ लगे थे । ना तो कोई किसी को इस लिए जन्म देता है कि उसकी मौत पर ऐसा कुछ होगा। और ना कोई अपने बेटे को इसलिए ब्याहता है कि उसकी बहू की मौत पर घर के आँगन मेँ मारपीट होगी। वह भी उस बहू के शव के सामने, जो एक समय के बाद घर की मालकिन बन जाती है।
शादी सृष्टि का नियम है। रिवाज है। परंपरा है। किसी ने किसी की हत्या की है तो हत्यारे बचने नहीं चाहिए, चाहे वे अपने ही क्यों ना हों। क्योंकि इस से बड़ा अपराध तो कोई हो ही नहीं सकता कि एक इंसान से उसका जीवन छीन लिया जाए। कितनी मुश्किल से मिलती है मानव देह, सब जानते हैं। अगर मौत एक हादसा है। मृत्यु स्वाभाविक है तो किसी बेकसूर को इसकी सजा मिलनी भी नहीं चाहिए। परंतु अचानक हुआ हादसा विवेक को इस प्रकार से हर लेता है कि कुछ सूझता ही नहीं। फिर वही होता है जो दूसरे गाइड करते हैं।
दोनों तरफ ऐसे व्यक्ति अपने आप आ जाते हैं, जिनका काम केवल और केवल तमाशा करना और करवाना होता है। ऐसे व्यक्तियों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उचित और अनुचित क्या है, इन्हें तो आग मेँ घी डालने का काम करना होता है। जिसकी बेटी की मौत हुई और जिसके घर की बहू मरी,वे दोनों परिवार तो सदमे के कारण कुछ समझ ही नहीं पाते! लड़के वाले तो इतना डर जाते हैं कि पूछो मत! क्योंकि सीधे सीधे बिना सुनवाई अंदर जाने की आशंका हो जाती है। रुपए पैसे तो लगते ही हैं।
न जाने किस किस की मिन्नत भी करनी पड़ती है। नाक रगड़ने पड़ते हैं। अपना सब कुछ दूसरों को सौंप हाथ जोड़ कर हां, हां करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते। जिन्होने लड़की खोई उनकी मनोदशा का वर्णन तो कोई शब्द कर ही नहीं सकते। उस माँ के दिल का हाल कौनसा इंसान, लेखक, कवि लिख सकता है, जिसने उसे कोख मेँ रखा और फिर पाला, पढ़ाया। दोनों परिवारों की हालत उस वक्त बहुत ही नाजुक होती है।
हादसे के समय इनकी स्थिति ऐसी होती है, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। कुछ भी हो सकने वाली स्थिति होती है। कमान लगभग दूसरों के हाथ मेँ खुद ही चली जाती है। बेटी के लिए कुछ करे तो मुश्किल और ना करे तो सौ उलहाने। बेटे वालों के पास केवल बचाव के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। उसकी तमाम सफाई बेकार होती है। उसकी सुनने वाले भी कम होते हैं।
कुछ कानून ऐसा है और कुछ माहौल ऐसा हो जाता है। किसी शहर मेँ ऐसी कोई पंचायत नहीं होती जो इस प्रकार के मामले मेँ आगे हो न्याय संगत काम कर सके। क्योंकि ये तो कोई संस्कार नहीं कि बेटी-बहू का शव आँगन मेँ रखा हुआ है और पीहर-ससुराल वाले आपस मेँ लड़ रहे हैं। कोई एक पक्ष पहल करता है, दूसरा बर्दाश्त भी कितनी देर करे। शुरू हो जाता है वह सब जो किसी भी सूरत मेँ न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। समाज ने तरक्की की है। बहुत आगे बढ़ा है।
बच्चे भी खूब पढे लिखे होते हैं। इसके बावजूद समझदारी कहीं दिखाई नहीं देती। हर समाज मेँ कुछ लोग ऐसे होने चाहिए जो इस प्रकार के संकट की घड़ी मेँ शव आँगन मेँ रख लड़ने की बजाए न्याय की बात करे। मगर अफसोस होते नहीं है। ऐसा लगता है पढ़ाई तो खूब हो गई, समझदारी कहीं किताबों मेँ खो गई। जिसका रिजल्ट यही होता है।
दो लाइन पढ़ो-
झूठ की नगरी मेँ सच की तलाश करते हो
किस ठौर के हो जनाब, कमाल करते हो।
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