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एक बड़े जतिगत संघर्ष की ओर अग्रसर भारत


जनता परेशान है, इसलिए चुप है। जिस दिन उसे यह महसूस हो गया कि अब तो संघर्ष ही एक मात्र रास्ता बचा है, बस उसी दिन जनता के साथ छल कपट कर अपनी सुख सुविधाओं और धन,बल और प्रसिद्धि पाने वाले नेताओं की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। आजादी के बाद से ही भारत जातियाॅ संघर्ष को झेलता चला आ रहा है। पहले अनुसूचित जाति जनजाति, फिर जाट, मराठा, पंजाबी, मुस्लिम, भूमिहार, गुजरात का पाटीदार आन्दोलन सहित अनगिनत घटना क्रम भारत की जनता, सरकार और नेताओं के सामने है। इन आन्दोलन का हश्र क्या हो रहा है यह किसी से छूपा नही है। जान जाने से लेकर भारी आर्थिक क्षति, राष्ट्रीय सम्पत्ति को क्षति, देश में अराजकता का महौल आए दिन हम देखते आ रहे है। 

हम विश्व के शक्ति शाली और समृद्ध देशों के मुकाबले का दावा कर रहे है, लेकिन क्या भारत में अब तक किसी सरकार ने विश्व के किसी देश में इतने जातीय संघर्षों को देखा है। क्या विश्व में शीर्ष स्थान हासिल करने वाले देशों में जाति देखकर, जाति पूछकर कोई सुविधा मुहैय्या कराई जाति है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा पिछड़ी जातियों की जनगणना का शिगुफा छोडकर इस बाॅत का संकेत दिया है कि हम एक बड़े जातीय संघर्ष की तरफ बढ़ रहे है। इस जनगणना के बाद भारत का जो रूप होगा उसकी कल्पना करके भी डर लगता है। अभी चंद जातियों का बॅटवारा होने पर देश में आए दिन अशांति दिखाई पड़ती है तो पिछड़ी जातियों की जनगणना के बाद देश का महौल क्या होगा ? संख्या बल के आधार पर लड़ने की क्षमता तो बढ़ेगी साथ ही एक खून होने के बाद भी एक दूसरे के प्रति नफरतका विस्तार होगा। अगर हिन्दुस्तान को विश्व पटल के शीर्ष पर लाने का इरादा कोई दल, कोई नेता रखता है तो उसे भारत में जातिगत की परिभाषा बदल कर उसे केवल हिन्दुस्तानी होने पर बल देना होगा।


आजादी के बाद भारत में पहली बार 2021 में होने वाली जनगणना में विभिन्न पिछड़ी जातियों के जातिवार आंकड़ें एकत्रित कवायद शुरू हो गई है। भारत में 1931 में जातिगत जनगणना ब्रिटिश शासन में की गई थी। इसी आधार पर मंडल आयोग की सिफारिशों पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह सरकार ने संविधान में संशोधन कर 1989 में पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया था। वीपी सिंह ने यह खेल अपनी सरकार बचाने और मंदिर निर्माण आंदोलन से भाजपा के बढ़ रहे जनाधार को रोकने के लिए खेला था। भारत में मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल 2006 में सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन की एक शाखा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ने पिछड़ी जातियों की गिनती की थी और ओबीसी आबादी की हिस्सेदारी देश की कुल आबादी में 41 फीसदी बताई थी। इसका कोई फायदा कांग्रेस को नही हो पाया था। अब भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर पिछड़ों और अतिपिछडों को लुभाने के लिए यह दांव भाजपा चला है। इस दांव के पीछे लालू, मुलायम और शरद यादव की जातिगत राजनीति खत्म करने के साथ मायावती के दलित वोट बैंक को हाशिए पर डालने की रणनीति है। यही कारण है कि फिलहाल तो यूपी में बकायदा उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या की अगुवाई में पछड़ों और अतिपिछडों का सम्मेलन कई दिनों तक राजधानी में चलने वाला है। इसका अनुसरण भाजपा पूरे भारत में करेगी।




इस बाॅत को कतई नकारा नही जा सकता कि जाति एक चक्र है। यदि जाति चक्र न होती तो अब तक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्त कुठारघात महाभारत काल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। बुद्ध धर्म, जाति और वर्णाश्रित राज व्यवस्था को तोड़कर समग्र भारतीय नागरिक समाज के लिए समान आचार संहिता प्रयोग में लाए। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरूनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा भी ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान।‘ महात्मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चलाकर भंगी का काम दिनचर्या में शामिल कर, उसे आचरण में आत्मसात किया। भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, संत ज्योतिबा फुले डाॅ. आम्बेडकर ने जाति तोड़क अनेक प्रयत्न किए, लेकिन जाति है कि मजबूत होती चली गई। इसके बावजूद इन महानविभुतियों का अनुसरण करने के बावजूद इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्या जाति टूट पाई ? नहीं,  जातिगत बॅटवारे का हश्र जानते हुए भी जातिवार जनगणना और उससे वर्तमान आरक्षण पद्धति में परिवर्तन की उम्मीद को लेकर पिछड़े तबके के मसीहा लालू-मुलायम-शरद का जोर था कि पिछड़ी जातियों की गिनती अनुसूचित जाति व जनजातियों की तरह कराई जाए। क्योंकि आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए यह पहल जरूरी है। लेकिन आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता।

 क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और शिक्षा हिस्सेदारी से जुड़ गई है। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी या निम्न जाति अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता। परंतु गौरतलब है कि पूंजीवाद की पोषक सरकारें समावेशी आर्थिक विकास की पक्षधर क्यों होगी ? सरकार और कई राजनैतिक दलों को पिछड़े और अति पिछड़ों की गिनती जल्द कराना चाह रहे है। 2021 में की जाने वाली जाति आधारित जनगणना के आंकड़े तीन वर्ष में आएंगे। गृहमंत्री राजनाथ सिंह मुताबिक इस जनगणना में पहली बार सूचना प्रौद्योगिकी का भी उपयोग होगा और घरों की जियो टैगिंग भी कराई जाएगी। इसके नतीजे 2024 तक सामने आ जाएंगे। इसी समय लोकसभा चुनाव निकट होंगे। यानि कि भाजपा का यह सियासी दाव 2019 के लिए नही बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए है। भाजपा 2019 के आम चुनाव में पिछड़ी जातियों की गिनती की घोशणा करके और ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर लालीपाॅप दे चुकी है। वहीं 2024 तक यदि वह सत्ता में बनी रहती है तो पिछड़ी जातियों की प्रमाणिक गिनती के आधार को वोट बटोरने का आधार बनाएगी ? 

एक चिन्ता की बाॅत और कि क्या अभी तक हम बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिओं से मुक्त हो पाए है ? ये घुसपैठिए देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने और सुरक्षा की दृष्टि से भारी बोझ बन गए हैं। आतंकवाद और सांप्रदायिक दंगों का कारण भी ये घुसपैठिए बन रहे हैं। अपने मूल स्परूप में जनसंख्या में बदलाव एक जैविक घटना होने के साथ समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक व आर्थिक आधारों को प्रभावित करती है। कुल मिलाकर लबोलुआब यह कि देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों ने देश की जनता को जाति के आधार पर बाॅटकर एक बड़े संघर्ष के रास्ते का विस्तार किया है। बेहतर होता कि जातिगत राजनीति से उठकर देश की जनता और राजनेता केवल हिन्दुस्तानी होने का दावा करते।

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