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व्यंग्य - प्याज का मारा इक दुखिया बेचारा


जबसे मैंने अपने दोस्त का चेहरा देखा है, अपने सा बेरंग ही देखा है। हो सकता है कभी उनके चेहरे पर नूर रहा हो, जब वे अविवाहित रहे हों। असल में वे मेरे जिगरी दोस्त विवाह के बाद ही हुए हैं। जो मैं विवाहित न होता, वे विवाहित न होते शायद ही हम एक दूसरे के दुख के दोस्त हो पाते। मीरा ने सच ही कहा है-घायल की गति घायल जाने और न जाने कोई। गृहस्थी बड़ों-बड़ों के चेहरे का रंग खराब कर देती है, मेरी उनकी तो मजाल ही क्या। तभी तो आधे से अधिक आज की डेट में गृहस्थी के डर से भाग बाबा हो गए हैं।


पर आज उनके चेहरे का रंग हद से अधिक उड़ा देखा मैं दंग रह गया। वे आते ही दोनों हाथ जोड़ गिड़गिड़ाते बोले, यार, मुझे बराबर धमकी नहीं, धमकियां मिल रही हैं। बहुत परेशान हूं। इन धमकियों से आ तंग आ आत्महत्या करने को मन हो रहा है। क्या पता कब क्या हो जाए! सरकार तक तुम्हारे हाथ हैं। मुझे सुरक्षा दिलवा दो तो मरने के बाद भी ऋणी रहूंगा, हाय वाणी में कितनी कातरता!


बेवकूफ की बातें सुन मुझे हंसी भी आई पर मैं चुपचाप मन ही मन हंसता सोचता रहा कि जो बंदा जिंदा जी महीने में चार- चार बार उधार ले अपने को किसीका ऋणी नहीं मानता, वह मरने के बाद अपने को किसीका ऋणी क्या खाक मानेगा?

पर सवाल अपनी बिरादरी के बंदे का था। कोई कुंआरा होता तो उसे दुत्कार देता । सो मैंने उनके आंसू पोंछते कहा, दोस्त! वास्तव में ये संसार भरा ही धमकियों से है। स्कूल से लेकर संसद तक सभी सादर एक दूसरे को निस्पृह भाव से धमकियां दे रहे हैं, धमकियां ले रहे है। भगवान भक्त को धमकियां दे रहा है तो भक्त भगवान को। इंसान शैतान को धमकियां दे रहा है तो शैतान इंसान को। इस लोक में कोई काम हो या न, पर एक दूसरे को धमकियां देने का काम युगों- युगों से सारे काम छोड़ हो रहा है, पूरी ईमानदारी से हो रहा है। रही बात अब हम जैसे विवाहितों की तो उनको तो सपने में भी धमकियां मिलती रहती हैं। कभी बेटे की तो कभी बेटी कीं। कभी सास की तो कभी बहू की। कभी बीवी की तो..... कभी इसकी तो उसकी । सो इसमें कौन अचंभे की बात है? अचंभा तो तब हो जिस दिन हमें कोई धमकी न मिले। कितनी बार तुम्हें समझाया कि पंगा लेने के बाद घिघियाने में नहीं, पंगे का दिलेरी से सामना करने में ही समझदारी होती है। जो अपने आप उखल में सिर देते हैं वे मूसल से नहीं डरते। पर अब कौन धमकी दे रहा है तुम्हें? माना यार,  हम गृहस्थी के तो वे कुर्सियों के मारे हैं, पर इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा आकर हमें धमकी दे जाए? आखिर है कौन तुम्हें धमकी देने वाला? उसके नाम का पहला अक्षर भर बता दो तो तब तक तुम उसका नाम पूरा नहीं ले पाओगे उससे पहले उसकी हड्डी -पसली एक न कर दूं तो मेरा नाम भी.... हम भी अपने जमाने के सिनेमा थिएटरों की खिड़की के आगे टिकट के लिए भिड़ने वाले नहीं, कह मैंने अपना बीपी लो होने के बाद भी कबाड़ी से खरीदे के कुरते के बाजू चढ़ा डाले।

यार, बीवी हफ्ते से धमकी दे रही है कि शाम को जो प्याज लेकर नहीं आए तो घर में घुसना भी मत। लास्ट वार्निंग देती हूं जो आज शाम को बिन प्याज के घर आए तो मुझसे बुरा कोई न होगा। यार, खुदा कसम, अब तो मैं तो रोज- रोज की इन धमकियों से तंग आ गया हूं। कभी टमाटर लाने को धमकी तो कभी गोभी। और तो और, मैंने तुम्हें बताया नहीं कि पिछले महीने काले बेंगन तक न लाने पर बीवी ने धमकी दे डाली थी,  मित्र धमकी देने वाले के बारे में बताया तो मेरा सारा जोश हवा हो लिया।


तो? मुझे काटो तो खून नहीं।

तो क्या, कुछ करो यार! हम भी क्या इस देश के नागरिक नहीं। शादीशुदा है तो क्या हुआ?

पर?

पर क्या ? सरकार के कानों में बात डालो कि एक आदर्श गृहस्थी को बराबर धमकियां मिल रही हंै। वह हमें सुरक्षा मुहैया करवाए। जो सुरक्षा नहीं दे सकती तो कम से कम प्याज के रेट ही कम कर दे ताकि हम घर में एकाध सांस तो चैन की ले सकें।

(लेखक परिचय: अशोक गौतम, जाने-माने साहित्याकार व व्यंकगकार। 24 जून 1961 को हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला की तहसील कसौली के गाँव गाड में जन्म। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से भाषा संकाय में पीएच.डी की उपाधि। देश के सुप्रतिष्ठित दैनिक समाचर-पत्रों, पत्रिकाओं और वेब-पत्रिकाओं निरंतर लेखन। सम्प.र्कः गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन, 173212, हिमाचल प्रदेश)

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