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अब नही चलेगा ‘‘ भारत बंद ’’ का खेल


आज से बीस वर्ष पहले जब कोई आन्दोलन होता था तो उसका विराट स्वरूप दिखाई पड़ता था। जैसे जैसे राजनीति का हश्र हुआ उसी अनुपात में भारत में होने वाले आन्दोलनों की धार मोथरी होती चली गई। सरकार के प्रति जनता में बेरूखी के बाद भी पूरे विपक्ष के एकजुट होकर किए गए ‘‘ भारत बंद ’’ को जनता का सहयोग न मिलना इस बाॅत का संकेत है कि भारत की जनता यह जान गई है कि सभी राजनैतिक दल अपनी स्वार्थी पूर्ति में लगें है। जनता के हितों से उनका कोई लेना नही। ‘‘ भारत बंद ‘‘ का यह फ्लाप शो इस बाॅत का संकेत दे रहा है कि अब देश में ‘‘ भारत बंद ’’ का खेल नही चलेगा।
राजनीति में सिद्धांत और व्यवहार का फर्क क्या होता है, इसे हम सबसे अच्छी तरह ‘‘ भारत बंद ’’ जैसे विरोध आयोजनों से समझ सकते हैं। बंद जैसे आयोजनों का इस्तेमाल सरकार को चेतावनी देने के लिए किया जाता है। धारणा यह है कि सरकार के किसी फैसले या नीति से जनता गुस्से में है, तो वह ऐसे विरोध आयोजन में बढ़-चढ़कर भाग लेगी। जनता में जितना गुस्सा होगा, उतना ही बंद सफल होगा। मगर हकीकत में बंद की सफलता इस पर निर्भर करती है कि बंद की अपील किसने की है, उसे किस-किस का समर्थन मिल रहा है और आयोजन में शामिल होने वालों की जमीनी ताकत क्या है? बंद असल में विरोध प्रदर्शन नहीं, बल्कि शक्ति प्रदर्शन होता है। हकीकत में बंद की सफलता जनता के गुस्से पर उतनी निर्भर नहीं करती, जितनी कि यह इससे तय होती है कि इसका आयोजन करने वालों की वितंडा खड़ा करने की क्षमता कितनी है? जो सड़कों पर, बाजारों में जितना बवाल खड़ा कर सकता है, बंद को कामयाब बनाने में उतना ही सफल हो जाता है।

 फिर भारत बंद की सिर्फ राजनीति ही नहीं होती, इसका एक भूगोल भी होता है। जिन प्रदेशों में आपकी सरकारें हैं, उन प्रदेशों में बंद को सफल बनाने में आप आसानी से कामयाब हो सकते हैं। ऐसे प्रदेशों में अक्सर बंद के दिन सरकारी दफ्तरों के ताले तक नहीं खुलते। स्कूल-कॉलेज भी पहले ही बंद में शामिल होने की घोषणा कर देते हैं। जिन कारखानों में आपकी टे्रड यूनियन है, वहां भी इसे आसानी से सफल बनाया जा सकता है। लेकिन दस सितम्बर 18 को कांग्रेस ने भारत बंद का जो आयोजन किया, उसकी कहानी भी इससे अलग नहीं है। यह बंद पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमत और रुपये के घटते मूल्य पर विरोध दर्ज कराने के लिए था। ये दोनों ही समस्याएं सचमुच ऐसी हैं, जो जनता को किसी न किसी रूप में परेशान कर रही हैं। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि आम आदमी वास्तव में बंद को सफल बनाने के लिए सड़कों पर आ गया हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई रैली में शरद पवार और शरद यादव जैसे नेता जरूर शामिल हुए और बिहार में लालू यादव के राजद ने इसमें जोर-शोर से भाग लिया, लेकिन इसमें पूरे विपक्ष के एक साथ आने की सूरत नहीं दिखाई दी। इस बंद ने यह तो बता ही दिया कि पूरे विपक्ष का एक साथ आना फिलहाल इतना आसान भी नहीं है।.
दिलचस्प बात यह है कि पिछले एक हफ्ते के अंदर यह दूसरा ‘भारत बंद’’ था। पिछले भारत बंद का आयोजन एससी-एसटी ऐक्ट के मुद्दे पर किया गया था। उसका पूरा आयोजन सोशल मीडिया पर ही किया गया था और उसमें कोई राजनीतिक दल प्रत्यक्ष तौर पर शामिल नहीं था। जमीनी तौर पर इसके लिए कुछ छोटे-मोटे संगठन ही सक्रिय थे। यह तय है कि 2019 के आम चुनाव से पहले हमें ऐसे कई और बंद देखने को मिलेंगे। शक्ति प्रदर्शन का असली समय चुनाव से पहले ही होता है। पेट्रोलियम पदार्थो की मूल्य वृद्धि के खिलाफ विपक्ष के भारत बंद आह्वान का उत्तर प्रदेश में जो हश्र हुआ, वह सभी राजनीतिक दलों के लिए सबक है। बंद विफल होने का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि आम आदमी को पेट्रोलियम पदार्थो की मूल्य वृद्धि से कोई परेशानी नहीं है। इसका सीधा अर्थ यह है कि आम आदमी भारत बंद जैसे आह्वान की असली मंशा समझने लगा है, लिहाजा वह इसमें शामिल होना पसंद नहीं करता। बंद और अन्य आंदोलनों के नाम पर जिस तरह हिंसा, आगजनी, सार्वजनिक संपत्ति की क्षति और नागरिकों के साथ अभद्रता की घटनाएं होती हैं, उसे देखते हुए राजनीतिक दलों को अपने आंदोलनों में नागरिकों की भागीदारी या समर्थन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। बंद के चलते बिहार में एक बीमार बच्ची की अस्पताल न पहुंच पाने के परिणामस्वरूप मौत का हादसा हृदय विदारक है। भारत बंद के आयोजकों को पीड़ित परिवार से न सिर्फ क्षमायाचना करनी चाहिए बल्कि उसकी मदद भी करनी चाहिए।बंद जैसे आंदोलनों के दौरान रोगियों, महिलाओं, बुजुर्गो और बच्चों को जो यातना ङोलनी पड़ती है, वह इन आयोजनों के औचित्य पर बड़ा सवाल है। कांग्रेस और उसके बंद समर्थक सहयोगी दलों को स्पष्ट करना चाहिए कि क्या पेट्रोलियम पदार्थो की मूल्य वृद्धि का विरोध ¨हसक बंद के बजाय किसी लोकतांत्रिक ढंग से नहीं किया जा सकता है। कांग्रेस को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि यदि लोग केंद्र सरकार से आजिज आ चुके हैं तो उसके बंद को उत्तर प्रदेश में समर्थन क्यों नहीं मिला? उसके कार्यकर्ताओं को बाजार बंद करवाने के लिए ¨हसा का सहारा क्यों लेना पड़ा? उत्तर प्रदेश में भारत बंद विफल रहने का सबक कांग्रेस के अलावा उन सभी दलों के लिए है 

जो समय-समय पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए ऐसे हथकंडों का सहारा लेते हैं। लोकतंत्र में कोई भी आंदोलन जन-समर्थन के बिना सफल नहीं हो सकता। यदि आम आदमी आंदोलन के साथ नहीं तो ऐसे आंदोलन का क्या मतलब? लेकिन कांग्रेस का दावा है कि 22 दलों ने भारत बंद में उसका साथ दिया। राजघाट पर श्रद्धांजलि देने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में नेताओं ने रामलीला मैदान तक पैदल मार्च किया। यहां मंच से मोदी सरकार पर करारे हमले किए गए। भारत बंद में जिस तरह से आप ने कांग्रेस के साथ मंच साझा किया, उससे साफ है कि मोदी सरकार के विरोध के लिए वे आपसी दूरियों को भुलाकर साथ आने के लिए तैयार हो रहे हैं। कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों की ओर से बुलाए गए भारत बंद के दौरान कई स्थानों पर अराजकता का खुला परिचय दिया गया। स्पष्ट है कि इससे आम लोगों को परेशानी उठानी पड़ी। आखिर कांग्रेस और अन्य दल यह कैसे कह सकते हैं कि इस बंद के जरिये वे जनता की परेशानियों की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करना चाह रहे थे। आखिर राजनीतिक विरोध का यह कौन सा तरीका है कि लोगों को जानबूझकर तंग करके सरकार को यह बताने की कोशिश की जाए कि वे परेशान हैं? बहरहाल सत्तारूढ़ के साथ देश के सभी राजनैतिक दलों को इन ‘‘ भारत बंद ’’ के हश्र से यह समझ लेना चाहिए कि जनता भेड़ नही है। राजनीतिक दलों को चाहिए कि भविष्य में कोई भी आंदोलन करने से पहले यह विचार जरूर करें कि उनकी रणनीति जनता को पसंद आएगी या नहीं।राजनीतिक दलों को चाहिए कि भविष्य में कोई भी आंदोलन करने से पहले यह विचार जरूर करें कि उनकी रणनीति जनता को पसंद आएगी या नहीं।

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