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क्या सही में इंसानियत का पैगाम देती है ’ईद-उल-अजहा’,जाने


ईद-उल-अजहा या ईदे-अजहा मुस्लिम भाइयों का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। ईद तीन तरह की होती है। ईदे-अजहा के अलावा दो और ईद हैं- ईदुलफित्र या रमजान ईद और दूसरी ईद को मिलादुन्नबी कहते हैं। पर ईदुल फित्र हो, ईदे अजहा या ईदे मिलाद, तीनों ईद भाइचारे, त्याग, समर्पण और इंसानियत का पैगाम देती हैं। तीनों ईदें सबको मिलजुलकर रहने और भलाई करने की सीख देती हैं।


ईद-उल-अजहा को कई नामों से जाना जाता है। ईदे-अजहा को नमकीन ईद भी कहा जाता है और इसी ईद को ईदे करबां भी कहा जाता है। नमकीन ईद कहे जाने का अर्थ यह है कि इसे नमकीन पकवानों के साथ मनाया जाता है। जबकि कुरबानी से जुड़ी होने की वजह से इसे ईदे कुरबां भी कहा जाता है। बच्चे आमतौर पर इसे बकरा ईद भी कहते हैं।

अमूमन यह माना जाता है कि इस ईद का संबंध बकरे से है। वास्तव में, ’बकर’ का अर्थ है बड़ा जानवर, जो जिबह किया जाता है। ईदे कुरबां का अर्थ है बलिदान की भावना। अरबी में श्कर्बश् नजदीकी या बहुत पास रहने को कहते हैं। अर्थात् इस अवसर पर भगवान पुरुष के करीब हो जाता है।

कुरबानी उस पशु के जिबह करने को कहते हैं, जिसे इस हज के महीने में दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं तारीखों को खुदा को खुश करने के लिए हज की रस्म अदा करते समय जिबह (बलि) किया जाता है।


बकरीद का महत्व और इतिहास 

ईद-उल-अजहा को ईद उल जुहा भी कहा जाता है। आमतौर पर इसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है। इस त्यौहार के कुछ दिनों पहले ही बाजारों में भीड़ बढ़ जाती है इस दिन मुस्लिम धर्म से जुड़ा इंसान खुदा के सामने अपने सबसे करीबी को कुर्बान करता है। इस दिन बकरे की कुर्बानी दी जाती है मुस्लिम धर्म से जुड़ा इंसान बकरे को पालता है और इस पर्व के दिन अल्लाह के लिए कुर्बान कर दिया जाता है जिसे फर्ज ए कुर्बान भी कहा जाता है। जिसका अर्थ है अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहने का सबक।

बकरीद से जुड़ीं कहानी 
कहानी के मुताबिक एक बार हजरत इब्राहीम के सपने में अल्लाह का हुक्म हुआ के उन्हे अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करना होगा जो की इब्राहीम के लिए सबसे प्यारा उनका बेटा था। यह इब्राहीम के लिए एक इम्तिहान था जिस में एक तरफ उनका बेटा जिस से वह बेहद प्यार करता था और दूसरी तरफ अल्लाह का हुक्म।


किन्तु इब्राहीम के लिए अपने अल्लाह का हुक्म ठुकराना किसी पाप से कम नहीं था इसीलिए उन्होने अल्लाह के हुक्म को पूरा करने के लिए अपने बच्चे की बलि देने को तैयार हो गए। उन्हें लगा के कुर्बानी देते वक्त उनकी भावनाएं आड़े आ सकती हैं इसीलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और छुरी लेकर अपने बेटे को कुर्बान करने ही वालें थे कि अल्लाह ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। अल्लाह ने कहा कि वह तो बस उनका इम्तिहान ले रहे थे और वो अपने बेटे की जगह एक भेड़ को कुर्बान कर सकते हैं तो बस यहीं से बकरीद मनाने की परंपरा शुरु हुई। 


भाईचारे के इस त्योहार की शुरुआत तो अरब से हुई है मगर, ’तुजके जहांगीरी’ में लिखा है- ’जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंधार, इस्फाहान, बुखारा, खुरासान, बगदाद और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का जन्म भारत से पहले हुआ था।’


मुगल बादशाह जहांगीर अपनी रिआया (प्रजा) के साथ मिलकर ईदे-अजहा मनाते थे। गैर मुस्लिमों को बुरा न लगे, इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिन्दू बावर्चियों द्वारा बनाए जाते थे।

इस बात के प्रमाण हैं कि ईद मनाने की परंपरा भारत में मुगलों ने ही डाली है, इसीलिए ईद के दिन आजकल भारत में ऐसा नजारा देखने को मिलता है, जैसे कि यह सारे भारत वर्ष का अपना पर्व हो। यही भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा है।

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