![]() |
| राजस्थान में कांग्रेस जिलाध्यक्ष चयन प्रक्रिया में गुटबाजी हावी। |
हनुमानगढ़ की सियासत इन दिनों चर्चा में है। वजह कोई आंदोलन, कोई बड़ा जनसंघर्ष या कोई वैचारिक क्रांति नहीं, बल्कि एक ऐसा “चयन चमत्कार” है, जिसे देखकर पुराने धुरंधर कार्यकर्ता भी अपने अनुभव पर संदेह करने लगे हैं। जिले में नए जिलाध्यक्ष की नियुक्ति ने यह साफ कर दिया है कि अब राजनीति में मेहनत से ज्यादा जरूरत है सही जगह पर सही रिश्तों की।
अदृश्य हाथ, दिखता हुआ ताज
जिले भर के वरिष्ठ और कनिष्ठ कार्यकर्ताओं को अब जाकर पता चला है कि वे जिस पार्टी के लिए बरसों से पसीना बहा रहे थे, उसके निर्णय किसी और ही ग्रह पर बैठा कोई अदृश्य समूह लेता है। जिन कार्यकर्ताओं ने गलियों, चौपालों और बूथों पर पार्टी के लिए दिन-रात खप दिया, वे केवल परिणाम सुनने के लिए थे, निर्णय में शामिल होने के लिए नहीं। सैकड़ों कार्यकर्ताओं की मेहनत पर आखिरकार रिश्तेदारी और निजी समीकरणों की मुहर लगनी थी, सो लग गई।
रिश्तेदारी मॉडल बनाम संगठन मॉडल
कहानी यहीं खत्म नहीं होती, यहीं से शुरू होती है। जिलाध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता जमीन से नहीं, सीधा “ऊपर” से बनाया गया। प्रदेश के एक बड़े नेता के नजदीकी रिश्तेदार से लेकर पंजाब के एक भारी-भरकम नाम तक, सबने मिलकर ऐसा पैनल तैयार किया, जिसमें स्थानीय कार्यकर्ताओं की पसंद और राय के लिए जगह बची ही नहीं। जिले के जीते और हारे सभी विधायकों ने जिस नाम पर मुहर नहीं लगाई, वही नाम चमत्कारिक ढंग से अंतिम सूची में सबसे ऊपर निकल आया। अब इसे संयोग कहा जाए, सिस्टम का कमाल या रिश्तेदारी मॉडल की विजय, यह पाठक स्वयं तय कर सकता है।
पर्दा, पटकथा और राजनीतिक मंचन
पार्टी के भीतर चर्चा है कि दो बड़े बाहरी नेता आपस में खींचतान कर रहे थे और उसी का एक “ड्रामा वर्जन” तैयार कर के उच्च नेतृत्व के सामने पेश कर दिया गया। ऊपर बैठे लोगों को यह दिखाया गया मानो भारी मंथन और गुटबाज़ी के बाद जो नाम निकला, वही सर्वश्रेष्ठ सहमति का प्रतीक है। जबकि अंदरखाने लोग फुसफुसा रहे हैं कि यह सब पहले से तय “गेम प्लान” था, जिसमें कथित खींचतान भी पटकथा का हिस्सा भर थी। बड़े नेताओं को यह भरोसा दिला दिया गया कि संगठन मजबूत हाथों में चला गया है, बाकी कार्यकर्ताओं की राय तो बाद में भी ली जा सकती है, अगर कभी जरूरत पड़ी तो।
जिले की नाराजगी, प्रदेश की बेचैनी
अब हाल यह है कि जिले से लेकर प्रदेश तक दो-तीन खास नामों के खिलाफ बगावती सुर सुनाई देने लगे हैं। मीटिंगों के बाहर, चाय की गुमटियों पर और व्हाट्सऐप ग्रुपों में यह सवाल गूंज रहा है कि आखिर संगठन में बात सुनी जाएगी कब। कुछ लोग तो हनुमानगढ़ के संदर्भ में “गुजरात मॉडल” जैसे शब्द का भी इस्तेमाल करने लगे हैं, बस फर्क इतना है कि यहां मॉडल विकास का नहीं, आंतरिक असंतोष का बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि यदि यह नाराजगी ऊपर तक ठीक से पहुंच गई, तो सुर्खियां किसी और वजह से बनेंगी, संगठन मजबूती से नहीं, टूट-फूट से याद किया जाएगा।
महिला नेतृत्व का ‘साइलेंट’ अध्याय
इस पूरे प्रकरण में एक बड़ा सवाल महिला प्रतिनिधित्व को लेकर भी उठ रहा है। एक ऐसी महिला, जिसने टिकट कटने के बाद भी पार्टी का दामन नहीं छोड़ा, संगठन के साथ खड़ी रही, उसे इस पूरे खेल में किनारे कर दिया गया। विधायक से लेकर सांसद तक, सभी ने मिलकर उसके विरोध में पूरी ताकत झोंक दी, मानो महिला को मौका मिल गया तो जिले में राजनीति की धारा ही बदल जाएगी। जो मौका उस महिला के जरिए महिला शक्ति को जोड़ने, नए वर्ग को साथ लाने और मजबूत संदेश देने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था, वह मौका व्यक्तिगत समीकरणों की भेंट चढ़ गया। नारा भले ही “महिला सशक्तिकरण” का हो, पर निर्णय में उसका स्थान साइलेंट मोड पर ही रखा गया। इसके अलावा कई मजबूत नाम थे जिनमे प्रदेश नेतृत्व कर चुके नेता और जिले में कार्यकर्ताओं की फौज लाने वाले भी शामिल थे। इसके अलावा दो बार अध्यक्ष रहे का नाम भी रिपीट करने की चर्चा हुई। लेकिन सभी को किनारे करते हुए अपने हिसाब से सेट किया गया। चर्चा इस बात की भी हैं की खुद पर्यवेक्षक जिसकी तारीफ करते हुए नाम सबसे ऊपर रखने और काबिल होने की बात कही थी वो भी नाम गायब कर दिया गया है। मतलब होना वहीं था जो प्लान था!
परिवारवाद का नया प्रयोग
कांग्रेस में परिवारवाद कोई नई बात नहीं, पर हनुमानगढ़ में तो मानो इसे प्रयोगशाला का दर्जा दे दिया गया है। अब चर्चा यह है कि एक ही परिवार के अलग-अलग सदस्य अलग-अलग पार्टियों और धड़ों में अपना-अपना भविष्य तलाश रहे हैं। परिवार के भीतर ही छोटे-बड़े दलों का ऐसा गठबंधन बन गया है कि आम कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहा कि वह पार्टी के प्रति निष्ठा रखे या किसी खास कुनबे के प्रति। संगठन से ज्यादा ज़ोर “घर की सेटिंग” पर दिखता है, और कुर्सी इस बात पर तय होती है कि कौन किसके साथ कितनी “नज़दीकी” रखता है।
नया चेहरा, नई कृपा और पुरानी नाराजगी
जिले में जिस चेहरे को जिलाध्यक्ष बनाया गया, उनकी सबसे बड़ी योग्यता यह मानी जा रही है कि वे कुछ ही महीनों में अचानक बेहद सक्रिय और सुर्खियों में रहने लगे। इधर पंजाब और राजस्थान के बड़े नेताओं ने इन्हें खास तौर पर सलाह दी कि जहां भी भीड़, कार्यक्रम या फोटो का मौका दिखे, वहां बिना बुलाए पहुंच जाओ। नतीजा यह हुआ कि साहब हर जगह मौजूद रहे, मंच पर जगह न मिले तो भी फ्रेम में नाम जरूर लिखवा लिया। पार्टी के पुराने सिपाही देख रहे थे कि जहां वे बरसों की मेहनत से भी जगह नहीं बना पाए, वहां नई एंट्री ने चंद महीनों में “क्लोज-अप” ले लिया।
पैनल के छह नाम, एक अदृश्य चयन
आखिरी समय में पैनल में छह नामों पर चर्चा हुई थी। इनमें से पांच नाम संगठन में लंबे समय से सक्रिय, संघर्षशील और “मजबूत” माने जाते थे। पर जो पांच मजबूत थे, वे सिर्फ चर्चा में रहे; असली फायदा उठाया उस नाम ने, जिसे सही समय पर सही जगह से धक्का लगा। अब आरोप यह लग रहे हैं कि पंजाब और राजस्थान के दो बड़े नेताओं ने मिलकर पूरा खेल सेट किया, नाम पहले तय कर लिया और प्रक्रिया बाद में निभाई गई। ऊपर से यह सब लोकतांत्रिक और परामर्श आधारित दिखाने की भरपूर कोशिश भी की गई, ताकि कोई यह न कह सके कि कार्यकर्ताओं को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया।
पर्यवेक्षक का सवाल और कार्यकर्ताओं की चुप्पी
अब बात चल रही है कि भविष्य में पर्यवेक्षक भेजे जाएंगे, सबकी राय ली जाएगी, संगठन को मजबूत किया जाएगा। लेकिन अंदर ही अंदर यह फुसफुसाहट भी है कि अगर पर्यवेक्षक भी उन्हीं लोगों के इशारे पर आएंगे, जो अभी पर्दे के पीछे पटकथा लिख रहे हैं, तो फिर परिणाम अलग कैसे होगा। कई कार्यकर्ता कह रहे हैं कि जब से नए निर्णय हुए हैं, तब से उन्हें केवल पोस्टर चिपकाने और भीड़ जुटाने तक सीमित कर दिया गया है, राय देने का अधिकार तो मानो सिर्फ चुनिंदा लोगों के लिए आरक्षित हो गया है। विधानसभा चुनावों में बिहार जैसी पराजय का हवाला देते हुए यह चेतावनी भी दी जा रही है कि यदि यही तरीका जारी रहा, तो आने वाले चुनावों में भी कीमत पार्टी को ही चुकानी पड़ेगी।
सवाल हनुमानगढ़ का, संकेत पूरे प्रदेश के लिए
जिले में सिटिंग विधायकों की बातों को किनारे रखकर निर्णय लिए गए, तो यह संदेश केवल हनुमानगढ़ तक सीमित नहीं रहा। यह संकेत पूरे प्रदेश में फैल गया कि स्थानीय नेतृत्व और कार्यकर्ता केवल फोटो के लिए जरूरी हैं, फैसले के लिए नहीं। आज चर्चा यह भी है कि अगर नया चेहरा वास्तव में सक्षम होता, तो पहले उसे यूथ विंग में मौका देकर उसकी क्षमता परखी जा सकती थी। पर जब लक्ष्य केवल “अपना आदमी सेट करना” हो, तो संगठनात्मक प्रशिक्षण और क्षमता परीक्षण जैसे पुराने सिद्धांत किताबों में ही अच्छे लगते हैं।
आगे की राह – कार्यकर्ता या समीकरण?
अब जिले में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आने वाले दिनों में पार्टी की दिशा कौन तय करेगा – जमीन से जुड़े कार्यकर्ता या हवा में खींची गई रेखाएं। जिस तरह एक नए नेता को अचानक तीन महीने में सर्वाधिक सक्रिय बनाकर, हर जगह भेजकर और लगातार सुर्खियों में रखकर तैयार किया गया, उससे यह स्पष्ट है कि भविष्य में भी राजनीति “इमेज मेकिंग” से चलेगी, न कि जमीनी संघर्ष से। लोग मजाक में कहने लगे हैं कि अब सिफारिश, रिश्तेदारी और चतुराई का कोर्स पढ़े बिना कोई भी नेता नहीं बन सकता।
हनुमानगढ़ की यह कहानी केवल एक जिले की नहीं, पूरे राजनीतिक सिस्टम की झलक है। यहां सवाल सिर्फ इस बात का नहीं कि किसे जिलाध्यक्ष बनाया गया, असली सवाल यह है कि क्या पार्टी को सच में कार्यकर्ताओं की जरूरत है, या सिर्फ ऐसे चेहरों की, जो सही तस्वीर में, सही समय पर, सही लोगों के साथ दिखाई दें। अगर जवाब दूसरा है, तो फिर कार्यकर्ताओं को भी समझ लेना चाहिए कि अब संघर्ष नहीं, संपर्क ही असली पूंजी है।
(लेखक : कुलदीप शर्मा एक पत्रकार होने के साथ ही व्यंग्यकार भी हैं)

0 टिप्पणियाँ
इस खबर को लेकर अपनी क्या प्रतिक्रिया हैं खुल कर लिखे ताकि पाठको को कुछ संदेश जाए । कृपया अपने शब्दों की गरिमा भी बनाये रखे ।
कमेंट करे